‘तारीख़ दर तारीख़’ पर सुप्रीम अवरोध!

भारत की न्यायिक व्यवस्था के बारे में बहुत सी बातें आये दिन होती हैं। इनमें एक कहावत सर्वाधिक मशहूर हो चली है - “यहाँ बाबा के द्वारा दायर मुक़दमे उसका बेटा लड़ता है और फ़ैसला पोते के जीवनकाल में सुनाया जाता है।”
 
‘तारीख़ दर तारीख़’ पर सुप्रीम अवरोध!

‘तारीख़ दर तारीख़’ पर सुप्रीम अवरोध!

“समय के निशां”

डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर, वरिष्ठ पत्रकार

भारत की न्यायिक व्यवस्था के बारे में बहुत सी बातें आये दिन होती हैं। इनमें एक कहावत सर्वाधिक मशहूर हो चली है – “यहाँ बाबा के द्वारा दायर मुक़दमे उसका बेटा लड़ता है और फ़ैसला पोते के जीवनकाल में सुनाया जाता है।”

इस सम्बन्ध में 28 साल पहले बनी बॉलिवुड की हिन्दी फिल्म ‘दामिनी’ का डायलॉग भी बहुचर्चित है। इसमें फिल्म के नायक सन्नी देओल अदालत में जज के सामने चिल्ला पड़ते हैं- “तारीख पर तारीख़…, तारीख़ पर तारीख़, … तारीख़ पर तारीख़, और तारीख़ पर तारीख़ मिलती रही है… लेकिन इंसाफ नहीं मिला- ‘माय लॉर्ड’, इंसाफ नहीं मिला। मिली है तो सिर्फ ये तारीख़।”

इसको एक हालिया नज़ीर से आसानी से समझा जा सकता है। घटना बीती 17 जुलाई की है। दिल्ली में कड़कड़डूमा जिला अदालत के कक्ष संख्या 66 में जमकर हंगामा हुआ। 2016 से लम्बित मुक़दमे में बार-बार तारीख़ मिलने से एक वादी राकेश बौखला गया। न्याय मिलने में देर से उसका गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा। अदालत कक्ष के रीडर ने जब उसे सुनवाई के लिए अगली तारीख़ काफी लम्बे समय बाद की दी तो वह आपा खो बैठा। सन्नी देओल की तर्ज़ पर ‘तारीख़ पे तारीख़’ चिल्लाते हुए उसने न्यायालय कक्ष के कम्प्यूटर और फर्नीचरों की तोड़फोड़ की। न्यायाधीश के बैठने के स्थान को भी नुकसान पहुंचाया। … लेकिन लगता है कि अब शायद इस दुष्प्रवृत्ति पर रोक लग सके!

बृहस्पतिवार (23 सितम्बर) को सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के बार-बार मामलों के स्थगन पर रोक लगा दी है। सर्वोच्च अदालत ने वकीलों के सुनवाई टालने के किसी प्रकार के अनुरोध को मंजूर करने से जजों को मना कर दिया है।

मध्यप्रदेश के एक मामले में चार साल की देर और 10 बार सुनवाई टालने पर न्यायाधीश मुकेशकुमार रसिकभाई (एम.आर.) शाह और न्यायमूर्ति अज्जिकुत्तिरा सोमैया (ए.एस.) बोपन्ना की पीठ ने नाराजगी जतायी। कहा कि “अब वक़्त है ‘वर्क कल्चर’ को बदलने का। …बार-बार स्थगन से कानूनी प्रक्रिया धीमी होती है। ऐसे में न्याय वितरण प्रणाली में विश्वास बहाल करने की कोशिश की जानी चाहिए, जिससे ‘कानून के शासन’ में विश्वास बना रहे।”

आम आदमी का भरोसा बनाएं-
न्यायमूर्ति शाह ने अपने निर्णय में कहा कि कई दफा बेईमान वादियों की बार-बार सुनवाई टलवाने की रणनीति से दूसरे पक्ष को न्याय पाने में देर होती है। बार-बार स्टे (स्थगन) देने से वादियों का विश्वास डगमगाने लगता है। न्याय प्रशासन में लोगों के विश्वास को मजबूत करने के उद्देश्य के लिए अदालतों को बार-बार कर्त्तव्यों का पालन करने के लिए कहा जाता है। अदालत ने कहा कि “कोई भी प्रयास जो न्याय व्यवस्था में आम आदमी के विश्वास को कमजोर करता है, उसे अवश्य रोका जाना चाहिए।”

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इसलिए अब अदालतें नियमित रूप से मामलों पर स्थगन नहीं देंगी और न्याय में देर के लिए जिम्मेदार नहीं होंगी। “एक कुशल न्याय व्यवस्था लाने और कानून के शासन में विश्वास को बनाये रखने के लिए अदालतों को मेहनत करनी चाहिए। मामलों पर अदालतों को समय पर कार्रवाई करनी चाहिए। न्यायिक अधिकारियों को वादियों के प्रति अपने कर्त्तव्यों को ध्यान में रखना होगा। जो न्याय के लिए आये हैं और जिनके लिए अदालतें हैं, उन्हें समय पर न्याय दिलाने का प्रयास होना चाहिए।”

वर्षों से ज़ारी दस्तूर तोड़ें-
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “न्याय वितरण प्रणाली (न्याय देने) में सालों से चली आ रही इस अदम्य ‘स्थगन संस्कृति’ के चलते वादियों का ‘फास्ट ट्रायल’ का अधिकार मायावी हो गया है।“ न्यायमूर्ति शाह ने कहा- “इस प्रकार की देर, लम्बी रणनीति, बार-बार स्थगन की माँग करने वाले वकीलों और अदालतों के द्वारा यंत्रवत और नियमित रूप से स्थगन देने के कारण बढ़ रही है।

शीर्ष अदालत ने चेतावनी देते हुए कहा कि “इस तरह की प्रणाली अपनाये जाने से न्याय व्यवस्था पर विश्वास कमजोर होता है।”

न्याय में देर की वज़हें-
दरअसल, देशभर की अदालतों में न्यायिक प्रक्रिया को देर तक लटकाये रखना रवायत बन गयी है। हालाँकि इसके पीछे अनेक वज़हें हैं लेकिन निचली अदालतों में भ्रष्टाचार और न्यायिक अधिकारियों के द्वारा की जाने वाली मनमानी, उनमें व्याप्त उदासीनता, उनकी संवेदनहीनता तथा दायित्वों के प्रति होती कमी प्रमुख है।

दूसरी तरफ़ अदालतों में कर्मचारियों के साथ न्यायाधीशों के भी काफी पहले से स्वीकृत पद ही बड़ी संख्या में खाली पड़े हैं जबकि आबादी तथा मामलों के बढ़ते जाने के बाद रिक्त स्थानों को शीघ्र भरने के साथ पद बढ़ाये जाने की ज़ुरूरत है। देश में स्थापित 25 उच्च न्यायालयों में जजों के क़रीब 45 फ़ीसद पद लम्बे समय से खाली हैं। इससे भी अधीनस्थ न्यायालयों में नयी नियुक्तियाँ होने में अड़चनें आती हैं।

बीती जुलाई में सरकार ने संसद में कुछ आँकड़े पेश किये थे। इनके मुताबिक़ सभी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के कुल 1,098 पद स्वीकृत हैं। हालाँकि इसी 18 सितम्बर को प्रकाशित एक रिपोर्ट कहती है कि कार्यरत न्यायमूर्तियों की तादाद सिर्फ़ 633 है। यानी 465 स्थान खाली हैं। 25 में से आठ (8) हाईकोर्टों में तो मुख्य न्यायाधीशों के स्थान ही लम्बे समय से रिक्त हैं।

रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने इन पदों को भरने समेत 13 मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए निर्णय कर लिया है। इनमें पाँच {5} मुख्य न्यायाधीशों को स्थानान्तरित किया जाना है।

मुख्य न्यायाधीशों के खाली पदों का ज़िम्मा कार्यवाहक न्यायाधीशों पर है। उनका अधिकांश समय प्रशासनिक कार्यों में बीतता है। न्यायाधीशों की कमी से उच्च न्यायालयों में ही लम्बित वादों की संख्या लाखों में है जबकि इनके समेत देश की अदालतों में कुल लम्बित मुक़दमे क़रीब तीन करोड़ के ऊपर पहुँच गये हैं।

सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में हैं। यों, इस सम्बन्ध में इस समय कोई अधिकृत जानकारी अनुपलब्ध है। खुली अदालतों से मुक़दमों को निपटाने में अहम मदद मिली थी किन्तु लगभग दो साल से कोरोना के चलते राज्यों में खुली अदालतों का आयोजन ठप पड़ गया है।

न्याय में देरी पर एनएचआरसी भी चिन्तित-
अभी 18 अगस्त को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (एनएचआरसी) कोर ग्रुप की पहली बैठक हुई थी। आपराधिक न्याय प्रणाली पर केन्द्रित इस बैठक में भी जनता को न्याय मिलने में देरी ख़त्म करने तथा त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधारों की धीमी गति पर गम्भीर चिन्ता जतायी गयी थी।

बैठक यह बात उभर कर आयी कि मामले निपटारे में देरी के फलस्वरूप विचाराधीन और दोषी कैदियों तथा मामलों से सम्बन्धित अन्य व्यक्तियों के मानव अधिकारों का उल्लंघन होता है। हालाँकि इसमें कुछ ठोस नहीं निकाल कर आ सका क्योंकि इसका विषय बिन्दु विशेष तक सिमटकर रह गया।

बैठक की अध्यक्षता करते हुए न्यायमूर्ति एम.एम. कुमार का कहना था कि “आपराधिक न्याय प्रणाली और त्वरित सुनवाई में ‘पुलिसिंग’ महत्वपूर्ण है। पुलिस सुधार की माँग करने वाले सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों सहित कई प्रयासों के बावजूद जमीनी हकीकत बहुत ज्यादा नहीं बदली है। उनका सुझाव था कि आईपीसी में कुछ प्रावधानों को हटाया जा सकता है और ‘टॉर्ट्स’ के कानून के तहत निवारण के लिए छोड़ दिया जा सकता है, जैसा कि इंग्लैंड में है। इस सन्दर्भ में उन्होंने अवैध कारावास का उदाहरण दिया। कहा कि जब नये कानून पारित किये जाते हैं, तो उनकी प्रभाव आकलन रिपोर्ट को इसके साथ संलग्न किया जाना चाहिए जिसमें अनुमानित व्यय, जनशक्ति और बुनियादी ढाँचे को दर्शाया गया हो। इस बारे में उन्होंने उस मामले का उदाहरण दिया जब “परक्राम्य लिखत अधिनियम” में धारा-138 को जोड़ा गया था और चेक बाउंस को अपराध बना दिया गया था। त्वरित सुनवाई सुनिश्चित करने के लिए, न्यायमूर्ति कुमार ने सुझाव दिया कि दिन-प्रतिदिन के आधार पर एक समेकित परीक्षण के लिए एक जाँच अधिकारी/एक विचारण न्यायाधीश होना चाहिए।

बहरहाल, देश में हर क्षेत्र में कार्य संस्कृति में धीमी गति से ही सही, क्रमश: सुधार हो रहा है! उम्मीद की जा सकती है कि लोगों को इंसाफ़ ज़ल्द मिले, पर ध्यान रखना होगा कि सारी बातें आदेश तक ही न सिमट जाएँ! देश में लालफीताशाही के ज़ाल को भी तोड़ना होगा जो सबसे बड़ी चुनौती है!