नववर्ष के उत्सव में आत्मावलोकन से सम्पूर्ण जीवन को उत्सव बनायें।

दिलीप कुमार शुक्ल, अनुसचिव, विधायी विभाग, उत्तरप्रदेश विधानसभा सचिवालय, लखनऊ ।
नववर्ष के उत्सव में आत्मावलोकन से सम्पूर्ण जीवन को उत्सव बनायें।

आज नववर्ष का प्रथम दिन है। इस अवसर पर आप सभी से प्राप्त शुभकामना / बधाई संदेशों के लिए धन्यवाद, एवम साथ ही आपको भी मेरी हार्दिक बधाई।

इस अवसर पर मैं यह निवेदन करना चाहता हूँ कि परिवर्तन जीवन का नियम है। हमारे भीतर 2 “मैं” है जिसमें एक स्थिर व दूसरा परिवर्तनशील है। किसी भी परिवर्तन को समझने के लिए यह अपरिहार्य है कि एक “मैं” स्थिर हो और एक “मैं” परिवर्तनशील। स्थिर “मैं” साक्षी होता है प्रत्येक परिवर्तन का।

जब हम बाहर ही बाहर देखते हैं तो ऐसा लगता है कि कुछ बदल रहा है पर सच तो यह है कि स्थिर “मैं” अर्थात साक्षी के अतिरिक्त सब कुछ प्रति पल बदल रहा है। वही साक्षी ही साक्षी है समस्त परिवर्तनों का, जिनमें वर्ष का परिवर्तन भी एक परिवर्तन है।

मेरी दृष्टि में असल में जो नहीं बदल रहा है, वह है व्यक्ति के देखने का ढंग/दृष्टिकोण। यदि दृष्टिकोण ठीक हो तो आप पाएंगे कि मात्र वर्ष ही नया नहीं है प्रत्येक पल नया है, पुराना पल गया, नया पल प्रस्तुत है। दृष्टि की स्थूलता के कारण हम इस नवीनता के दर्शन से व उसका लुत्फ़ उठाने से प्रायः वंचित रह जाते हैं ।

जीवन का गहन परीक्षण करने पर ऐसा विदित होता है कि अधिकतर ऐसा ही होता है। स्थिति या परिस्थिति से कहीं अधिक हम किस प्रकार उसकी व्याख्या करते हैं वह महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार जीवन के अधिकतर दर्द व्यक्तिनिष्ठ विश्लेषण पर आधारित हैं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति अपनी पीड़ा, अवसाद व विषाद के लिए काफी हद तक स्वयं उत्तरदायी है। असल में वह दर्द, पीड़ा, चिंता, अवसाद की स्थिति को तो बदलना चाहता है, परन्तु ऐसा कर पाना उसके लिए इसलिए कठिनतर हो जाता है क्योंकि वह जीवन के प्रति खुला नहीं होता है, बल्कि अपने व्यक्तिनिष्ठ विचारों को होशपूर्वक देखकर उन्हें बदलने को बिल्कुल ही उद्द्यत नहीं होता है। इस प्रकार समाधान मिलना दुष्कर हो जाता है। नया वर्ष ही क्यों, सम्पूर्ण जीवन को यदि हम उत्सव बनाने के लिए वास्तव में गम्भीर हों तो हमें आत्मावलोकन अनिवार्य रूप से करना ही होगा।

घर, परिवार, समाज, मित्र, स्थिति, परिस्थिति, कार्यस्थल, मौसम, सम्बन्धों आदि में परिवर्तन की प्रतीक्षा/अपेक्षा करने या उन्हें बदलने का प्रयास करने के बजाय स्वयं में यथोचित और यथावश्यक परिवर्तन का सघन प्रयास अनिवार्य रूप से करना चाहिए‌। इसके लिए इतना ही करना होगा कि अपने व्यक्तनिष्ठ (subjective) दृष्टिकोण को वस्तुनिष्ठ (objective ) बनाना होगा। वस्तुनिष्ठता (objectivity) को उपलब्ध होते ही सब कुछ स्वयमेव बदल जायेगा।

मेरी दृष्टि में नए साल को उत्सवीय बनाने व सार्थक बनाने हेतु यही संकल्प वांछनीय व उत्तम होगा कि हम अपनी ऊर्जा को बाह्य क्रियाकलाप को परिवर्तित करने में अपव्यय करने के बजाय उसका स्वयं की मनःस्थिति के परीक्षण में किंचित निवेश करें। सच मानिए नए वर्ष का क्या कहना, जहां तक मेरा अनुभव है, पूरा जीवन उत्सव बन जायेगा। दारिद्र्य व सम्पन्नता भी कई बार मन की स्थिति ही होती है।

वस्तुनिष्ठता को उपलब्ध होते ही आपको ज्ञात होगा कि आप परम पूर्ण परमात्मा की संतान हैं। आप अमृत सन्तान हैं। आप पूर्ण से उत्पन्न हैं, उसके अंशी हैं, सम्प्रति आप सदा व सर्वथा पूर्ण हैं‌। बस यह बोध जिस पल भी हमें हो जाये, जीवन धन्य हो जाएगा। फिर अभाव/अल्पता का भाव प्रचुरता में, रोग स्वास्थ्य में, विषाद प्रसाद में, शंका-समाधान में, चिंता हर्षोन्माद में, क्रोध-करुणा में, प्रमाद होश और तत्त्परता में, वासना प्रार्थना में, लोभ दान में, घृणा प्रेम में, अहंकार विनम्रता में तत्क्षण रूपांतरित हो जाएगा। समस्याओं के समाधान को क्या कहें वह तिरोहित हो जाएंगी।

प्रभु से विनती है कि नए वर्ष में हमें यह शक्ति व संकल्प प्रदान करें कि हम आत्मावलोकन कर यथासंभव वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से समग्र जीवन को देखने में सक्षम हो सकें, ताकि जीवन पीड़ामुक्त हो तथा प्रसादमय बन सके।

उक्त विचार मेरे व्यक्तिगत अनुभव पर आधारित हैं जिन्हें मैं आप श्रेष्ठजन के विचारार्थ मात्र अंकित कर रहा हूं। हो सकता है किन्ही सुधिजन के लिए यह विचार किंचित उपयोगी व सार्थक सिद्ध हो सकें।

सादर निवेदित।

दिलीप कुमार शुक्ल,
अनुसचिव, विधायी विभाग, उत्तरप्रदेश विधानसभा सचिवालय, लखनऊ ।