शख्शियत: आज पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय का जन्मदिन है-

सामाजिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय का जन्म प्रतापगढ़ जनपद के एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे अष्टभुजा विद्या निकेतन जेठवारा के संस्थापक प्राचार्य थे।
 
शख्शियत: आज पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय का जन्मदिन है-

पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय की स्मृति में: आज जिनका जन्मदिन है-

सन्तोष कुमार सिंह, पत्रकार

सामाजिक सद्भाव और धार्मिक सहिष्णुता के प्रतीक पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय का जन्म प्रतापगढ़ जनपद के एक सम्भ्रान्त ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे अष्टभुजा विद्या निकेतन जेठवारा के संस्थापक प्राचार्य थे।

पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय एक ऐसे विलक्षण व्यक्ति रहे हैं, जिन्होंने धर्म-अध्यात्म को न केवल समझने का, वरन् व्यवहारिक जीवन में उतारने का प्रयास किया। उन्होंने अध्यात्म के मर्म को समझा और उन्हें हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, यहूदी, सिख, जैन, आर्य समाज, बौद्ध और अन्य मतों में समान आध्यात्मिक चिंतन देखा। उनका स्पष्ट अभिमत था कि अन्तर केवल सम्प्रदाय या पंथ विशेष के आचार-विचार और वाह्य व्यवहार में ही होता है, धर्म के मूल आध्यात्मिक तत्व में नहीं।

पण्डित जी का जन्म 15 अक्टूबर सन् 1934 को प्रतापगढ़ जनपद के डेरवा-रामपुर रोड पर स्थिति ‘पूरे छतऊ’ ग्राम में पण्डित देवनाथ पाण्डेय के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ था। उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा स्थानीय ढिंगवस पाठशाला में प्राप्त करने के उपरान्त सन् 1952 में के0 पी0 इण्टर कालेज इलाहाबाद में प्रवेश लिया, और वहाँ से 1954 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा अंग्रेजी, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र विषयों के साथ उत्तीर्ण किया।

प्रारम्भ से ही तार्किक, चिन्तनशील व मेधावी होने के कारण पण्डितजी बहुत सी सामाजिक रूढियों और धार्मिक परम्पराओं को जैसे का तैसा स्वीकार नहीं कर पाते थे, और इसके लिये उन्हें सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ता था। प्रयाग में उन्हें अपने विचारों को विकसित करने का अवसर मिला। उनकी संगीत और अध्यात्म में रुचि विकसित हुई। इसी दौरान उन्होंने भगवद्गीता एवं तुलसीदासकृत रामचरितमानस का भी अध्ययन किया और उसमें साहित्यिक सौन्दर्य के साथ-साथ भक्ति और आध्यात्मिक गहराई को आत्मसात किया। रामायण पर भारतीय विद्वानों के अतिरिक्त आचार्य मैक्समूलर और ग्रियर्सन जैसे अंग्रेज विद्वानों की टीकाएं भी पढ़ी। प्रवचन के लिये उन्हें मानस सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा।

पण्डितजी ने आध्यात्मिक साधना की गहराई का अनुभव पाने के लिए श्री रामकृष्ण परमहंस के मार्ग का भी सहारा लिया और मां काली के उपासक हो गये। जहाँ एक तरफ अध्यात्म में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की साधना पद्धति तथा स्वामी विवेकानन्द के अद्वैत दर्शन ने उन्हें प्रभावित किया, वहीं समाज सेवा के क्षेत्र में आचार्य विनोबा भावे की निस्पृह और सर्वोदयी समाज सेवा ने उन्हें आकर्षित किया।

विनोबाजी की भूदान-यात्रा में सम्मिलित होने के क्रम में इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद ही पण्डितजी को मध्यप्रदेश प्रवास का अवसर मिला। इसी दौरान मध्यप्रदेश के पूर्व-मुख्यमंत्री पं0 द्वारिका प्रसाद मिश्र के माध्यमिक विद्यालय के प्रबन्धक से उनकी मुलाकात हो गई। प्रबन्धक महोदय ने पण्डित जी की वार्ता से प्रभावित होकर उन्हें अपने विद्यालय में अध्यापन का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। छिन्दवाड़ा जनपद के चौरई तहसील मुख्यालय स्थित इस विद्यालय में अध्यापन के दौरान ही सागर विश्वविद्यालय से ‘बी. ए.’ और ‘डिप्लोमा इन टीचिंग’ की उपाधियां हासिल कीं।

सन् 1954 से 1967 तक का मध्यप्रदेश का लगभग 13 वर्षों का निवास पण्डितजी के जीवन में कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण था। गीता व रामचरित मानस की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर प्रवचन के लिए विभिन्न धर्मिक सम्मेलनों में भाग लेने के अतिरिक्त अनेक सांस्कृतिक व सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहे। आध्यात्मिक खोज में नागपुर के पास स्थित एक दरगाह में एक फकीर करामतशाह बाबा से मुलाकात हुई, जिसके पश्चात् उन्होंने हिन्दूशास्त्रों के साथ कुरान, बाइबिल आदि अन्यान्य पंथों व धर्मग्रन्थों का भी अध्ययन करना शुरू किया।

आध्यात्मिक यात्रा के साथ-साथ एक समानान्तर बौद्धिक विकास की प्रक्रिया भी चल रही थी, जिससे उनमें सामाजिक और राजनैतिक परिवर्तन की प्रबल धरणाएं विकसित हुई। यही कारण था कि वे आचार्य विनोबा भावे की भूदान-यात्राओं में उनके साथ रहे और सर्वोदय के क्रियाकलापों से जुड़े रहे। धर्मप्रेरित राजनीति व रामराज्य की संकल्पना को लेकर 1960 के दशक में धर्म सम्राट श्री स्वामी करपात्री जी महाराज का ‘अखिल भारतीय रामराज्य परिषद’ की स्थापना में सहयोग दिया।

स्वामी करपात्रीजी के ही आदेश को शिरोधार्य कर जनवरी 1967 में मध्यप्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़े। मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री देवीलाल शर्मा के अथक प्रयास के बाद भी उनके विरुद्ध मैदान में डटे रहे और उनके धनबल सहित सारे समीकरणों को ध्वस्त कर दिया, लेकिन शायद परमात्मा की इच्छा उन्हें अध्यात्म के मार्ग पर ही दृढता से बनाये रखने की थी। चुनाव के कुछ ही दिनों पूर्व उनकी परमसाध्वी सहयोगिनी पत्नी श्रीमती सुशीला देवी का आकस्मिक निधन हो गया, और इस प्रकार पण्डित जी को वापस उत्तरप्रदेश आना पड़ा।

उत्तरप्रदेश आने पर पं0 सुखपतिराम उपाध्याय ने पण्डितजी की प्रतिभा की चर्चा सुनकर उन्हें अपनी संस्था ‘अष्टभुजा विद्या निकेतन जेठवारा’ की स्थापना व संचालन में सहयोग हेतु प्राचार्य नियुक्त किया। इसी संस्था को पण्डितजी ने अपनी समस्त आध्यात्मिक सामाजिक सांस्कृतिक गतिविधियों का केन्द्र बनाया। यहां रहने के दौरान ही उन्होंने गीता, रामायण, उपनिषद, कुरान, बाइबिल आदि ग्रन्थों का अध्ययन किया, और यहीं रहकर उन्होंने प्रेम, सद्भाव व धार्मिक सहिष्णुता का एक ऐसा आदर्श स्वरूप प्रस्तुत किया, जिसने लोगों को अन्दर तक झकझोर दिया।

अपने अध्ययन, साधना, आत्मिक अनुभूतियों, और आध्यात्मिक तत्वज्ञान को मिलाकर पण्डितजी ने धर्म का एक ऐसा निचोड़ तैयार किया, जो अन्तत: उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गया। वेदान्त से ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’, इस्लाम से ‘लाइलाह इल्लिलाह’, निर्गुण और सगुण उपासक भक्तों से भक्ति और समर्पण की गहराई तथा प्रेममार्गी सूफी साधकों से उनके प्रेमतत्व को ग्रहण करके उन्होंने अपने व्यक्तित्व को सरल, सहज, निष्कपट, निश्छल, उदार, समदर्शी, निरहंकारी, निस्पृह और समर्पणयुक्त बना लिया था। उनका व्यक्तित्व प्रेम का एक अथाह सागर था। पण्डितजी का आध्यात्मिक ज्ञान उनके जीवन और व्यवहार में प्रवाहित होता था।

पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय और उनके अभिन्न मित्र मौलाना हयातउल्लाह साहब का एक मंच से प्रवचन साम्प्रदायिक भाई-चारे का एक विलक्षण स्वरूप होता था। यही कारण था कि वे आजीवन समस्त धर्मिक सम्प्रदायों के लिए आकर्षण का केन्द्र बने रहे और राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भाव, सर्वधर्म समभाव तथा विश्व-बन्धुत्व के लिए लोगों को आजीवन प्रेरित करते रहे। पण्डितजी 7 मई 1989 को दिवंगत हो गये।

पण्डित बद्री प्रसाद पाण्डेय के अनुयायियों द्वारा ‘राष्ट्रीय सद्भावना समारोह’ के रूप में 15 अक्टूबर को एक भव्य आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है। लगभग 32 वर्षों से चलाये जा रहे इन कार्यक्रमों ने एक सामाजिक आन्दोलन का रूप ले लिया है। 15 अक्टूबर 2020 को कोविड-19 के प्रोटोकॉल को देखते हुए समारोह का आयोजन आनलाइन किया गया, जिसके फलस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्वानों और धर्माचार्यों को सम्मिलित होने का अवसर मिला।