अलौकिक शक्तियों के सहारे 1700 गाँवो में एक साथ सभा करने वाले टंट्या मामा।।

अंग्रेजो ने उनको इंडियन रॉबिन हुड नाम दिया था, आज भी उनकी समाधि स्थल से गुजरने वाली ट्रेनों को कुछ क्षण के लिए रोकते है।।
 
अलौकिक शक्तियों के सहारे 1700 गाँवो में एक साथ सभा करने वाले टंट्या मामा।।

ग्लोबल भारत न्यूज़ नेटवर्क

शख्सियत, 15 अगस्त:- भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की चिंता न करके राष्ट्रहित के लिए मोह, माया और अपने सुख को त्याग करने वाले वीरों को आज हमारी युवा पीढ़ी भूल गई है। याद तो उनके परिजन तब ही करते है जब उनको किसी सरकारी योजना में लाभ लेना होता है। उन्होंने हमें गुलामी से बचाने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था। ये वे बहादुर और दुस्साहसी लोग थे, जिन्होंने ब्रिटिश शासन से अपने देश के लिए स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। उन्होंने अंतहीन बलिदान दिए ताकि हम अपने देश में स्वतंत्र रूप से रह सकें और खुशियों का जीवन जी सकें।

अलौकिक शक्तियों के सहारे 1700 गाँवो में एक साथ सभा करने वाले टंट्या मामा।।

अंग्रेज भारतीयों पर शोषण के कई अन्यायपूर्ण कार्य करते थे:- अंग्रेजी हुकूमत ने भारतीयों पर बहुत अत्याचार करते थे, और उन्ही अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए कुछ रणबांकुरों ने यह ठान लिया था कि अपने देश को आजादी दिला कर ही चैन लेंगे। आज भी लोग उन्हें उनकी देशभक्ति और देश के लिए प्यार और बलिदान के लिए याद करते हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वह लोग हैं जिनकी वजह से आज हम स्वतंत्रता दिवस मना पा रहे हैं।

बिना प्रशिक्षण और बिना हथियार के लड़ी लड़ाई:- कई स्वतंत्रता सेनानी लोगों को अंग्रेजों की क्रूरता से बचाने के लिए युद्ध के लिए चले गए, यहां तक कि उनके पास कोई प्रशिक्षण नहीं था ना ही कोई हथियार थे। वह निहत्थे अंग्रेजी सेना से लोहा लेने के लिए अपने प्राणों की चिंता न करते हुए, भारत के लोगों की चिंता करते हुए अपने देश को अन्याय और शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए लड़ते थे। युद्ध के दौरान उनकी हत्या हो जाती थी और उनको असहनीय पीड़ादायक कष्टों से होकर गुजरना पड़ता था। इस तरह हम यह जान सकते हैं कि हमारी आजादी के लिए उन्होंने कितने कष्ट झेले हैं। वह कितनी बहादुरी से इन सभी परिस्थितियों को झेल कर आज हमें आजाद नागरिक बनाया। कई स्वतंत्रता सेनानियों ने लोगों को उनकी आजादी के लिए प्रेरित किया, उनके अंदर आत्मविश्वास को जगाया और देश हित के लिए अपने प्राणों की ना चिंता करते हुए, अपने आने वाली पीढ़ी को गुलामी की दासता से मुक्ति दिलाने के लिए अदम्य बहादुरी का परिचय दिया। आज हम आपको एक यैसी ही कहानी बताने जा रहे है जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की बलि दी थी।

अलौकिक शक्तियों के सहारे 1700 गाँवो में एक साथ सभा करने वाले टंट्या मामा:- भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक योद्धा हुए हैं, देश की ख़ातिर इन क्रांतिकारियों ने अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये। 1857 की क्रांति से पहले से लेकर देश आज़ादी तक, कई क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ अपने अपने तरीके से जंग लड़ी थी। अंग्रेज़ों से जंग लड़ने वाले एक क्रांतिकारी ‘टंट्या भील’ भी थे।

अलौकिक शक्तियों के सहारे 1700 गाँवो में एक साथ सभा करने वाले टंट्या मामा।।

प्रारंभिक जीवन:- टंट्या भील का जन्म 1840 के क़रीब मध्य प्रदेश के खंडवा में हुआ था। टंट्या भील का असली नाम ‘टण्ड्रा भील’ था, वो एक ऐसे योद्धा थे जिसकी वीरता को देखते हुए अंग्रेज़ों ने उन्हें ‘इंडियन रॉबिन हुड’ नाम दिया था। देश की आजादी के जननायक और आदिवासियों के हीरो टंट्या भील की वीरता और अदम्य साहस से प्रभावित होकर तात्या टोपे ने उन्हें ‘गुरिल्ला युद्ध’ में पारंगत बनाया था। वो ‘भील जनजाति’ के एक ऐसे योद्धा थे, जो अंग्रेज़ों को लूटकर ग़रीबों की भूख मिटाने का काम करते थे। टंट्या ने ग़रीबों पर अंग्रेज़ों की शोषण नीति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी, जिसके चलते वो ग़रीब आदिवासियों के लिए मसीहा बनकर उभरे, आज भी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कई आदिवासी घरों में टंट्या भील की पूजा की जाती है।

क्यो लोग उनको टंट्या मामा कहकर पुकारते थे:- टंट्या भील केवल वीरता के लिए ही नहीं, बल्कि सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के लिए भी जाने जाते थे। उन्होंने ग़रीबी-अमीरी का भेद हटाने के लिए हर स्तर पर कई प्रयास किए थे, इसलिए वो आदिवासी समुदाय के बीच ‘मामा’ के रूप में भी जाने जाने लगे। आज भील जनजाति के लोग उन्हें ‘टंट्या मामा’ कहलाने पर गौरव महसूस करते हैं, टंट्या भील को उनके विद्रोही तेवर के चलते कम समय में ही बड़ी पहचान मिल गयी थी। टंट्या का स्वभाव उनके नाम की तरह ही था, जिसका का शब्दार्थ अर्थ ‘झगड़ा’ होता है। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह करने के बावजूद ‘टंट्या मामा’ के कारनामों के चलते अंग्रेज़ों ने ही उन्हें ‘इंडियन रॉबिन हुड’ नाम दिया था। आदिवासियों के विद्रोहों की शुरूआत प्लासी युद्ध (1757 ) के ठीक बाद ही शुरू हो गई थी और ये संघर्ष 20वीं सदी की शुरूआत तक चलता रहा। सन 1857 से लेकर 1889 तक टंट्या भील ने अंग्रेज़ों के नाक में दम कर रखा था, वो अपनी ‘गुरिल्ला युद्ध नीति’ के तहत अंग्रेज़ों पर हमला करके किसी परिंदे की तरह ओझल हो जाते थे।

प्राप्त थी आलौकिक शक्तियां:- टंट्या भील के बारे में कहा जाता है कि उन्हें आलौकिक शक्तियां प्राप्त थीं, इन्हीं शक्तियों के सहारे टंट्या एक ही समय में 1700 गांवों में सभाएं करते थे। टंट्या की इन शक्तियों के कारण अंग्रेज़ों के 2000 सैनिक भी उन्हें पकड़ नहीं पाते थे। टंट्या देखते ही देखते अंग्रेज़ों के आंखों के सामने से ओझल हो जाते थे। इसके अलावा उन्हें सभी तरह के जानवरों की भाषाएं भी आती थीं। आख़िरकार में कुछ लोगों की मिलीभगत के कारण वो अंग्रेज़ों की पकड़ में आ गए और 4 दिसम्बर 1889 को उन्हें फांसी दे दी गई। फांसी के बाद अंग्रेज़ों ने ‘टंट्या मामा’ के शव को इंदौर के निकट खंडवा रेल मार्ग पर स्थित पातालपानी (कालापानी) रेलवे स्टेशन के पास ले जाकर फेंक दिया गया। इसी जगह को ‘टंट्या मामा’ की समाधि स्थल माना जाता है, आज भी सभी रेल चालक पातालपानी पर ‘टंट्या मामा’ को सलामी देने कुछ क्षण के लिये ट्रेन रोकते हैं। मध्य प्रदेश के हीरो ‘टंट्या मामा’ के जीवन पर आधारित एक फ़िल्म ‘टंट्या भील’ भी बन चुकी है।

सरदार भगत सिंह ने कहा था:- अत्याचारी अंग्रेजों को मारना साथ ही मारते हुये खुद मर जाना और कुछ इस तरह से मरना की पूरे भारत के युवाओं के हृदय में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठे। इस भड़की हुई आग का ताप इतना तेज हो जो भारत पर राज कर रही हुकूमत को जला कर राख कर दे। साथ ही इसका असर इतना तेज हो की आने वाले समय में भारत की ओर कोई आँख उठाकर भी न देख सके।।