13 वीं तवांग तीर्थ-यात्रा 19 से 25 नवंबर तक आयोजित होगी।
13 वीं तवांग तीर्थ-यात्रा 19 से 25 नवंबर तक आयोजित होगी।
(पंकज गोयल, राष्ट्रीय महामंत्री, 'भारत तिब्बत सहयोग मंच')
तवांग तीर्थ-यात्रा को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक डॉ. इन्द्रेश जी ने वर्ष 2012 में प्रारम्भ किया था| इस वर्ष यात्रा 19 से 25 नवम्बर तक आयोजित होगी|
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक एवं भारत तिब्बत सहयोग मंच के मार्गदर्शक माननीय डॉ. इन्द्रेश कुमार जी के मार्गदर्शन में संचालित मंच तिब्बत की आजादी, कैलाश मानसरोवर की मुक्ति, हिमालय की रक्षा, पर्यवरण की सुरक्षा एवं अन्य सम-सामयिक मुद्दों को लेकर अनवरत 25 वर्षों से कार्य कर रहा है|
मंच अपनी सक्रियता, कार्यक्रमों एवं जन- जागरण के माध्यम से नित नई उपलब्धियों के साथ आगे बढ़ता जा रहा है|
उपलब्धियों की दृष्टि से मंच की बात की जाये तो तमाम उपलब्धियों के साथ एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है, तवांग तीर्थ-यात्रा|
इस बार आयोजित होने वाली 13 वीं तवांग तीर्थ-यात्रा नया इतिहास रचने के लिए तैयार है|
यह कोई सामान्य यात्रा नहीं है, बल्कि यह एक विशेष यात्रा है| इस यात्रा में भारत की आत्मा रची-बसी हुई है|
यह यात्रा राजनैतिक, आर्थिक सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, राष्ट्रीय एकता- अखंडता एवं देशभक्ति से ओतप्रोत है या यूँ कहें कि समग्र दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है|
इस यात्रा के माध्यम से संपूर्ण भारत के लोगों को पूर्वोत्तर भारत को जानने एवं समझने का अवसर प्राप्त होता है|
हिंदुस्तान में विभिन्न यात्राओं के संस्थापक माननीय इन्द्रेश जी ने जब इस यात्रा की शुरुआत की थी तो उनके मन में यही भाव था की सम्पूर्ण भारत के लोग पूर्वोत्तर भारत को ठीक से जानें एवं समझें|
इसके साथ ही पूर्वोत्तर के लोग भी राष्ट्र की मुख्य धारा से अपने को सदैव जोड़े रहें|
जिस अरुणाचल प्रदेश को मक्कार चीन अपना बताता है, उस प्रदेश के अंतिम जिले तवांग में बुमला बॉर्डर पर तवांग तीर्थ यात्री जाते हैं और वहां पहुँच कर स्थानीय लोगों के साथ मिलकर भारत माँ यानी भारत भूमि का पूजन एवं वंदन करते हैं|
बुमला बॉर्डर पर पहुंच कर चीन की छाती पर चढ़कर तीर्थ- यात्री धूर्त चीन को यह सन्देश देते हैं कि हम तुम्हें ईट का जवाब पत्थर से देने में सक्षम हैं| पूर्वोत्तर भारत के जो भाई–बहन पूरे भारत का भ्रमण नहीं कर पाते हैं, वे भारत के कोने -कोने से आये तीर्थ- यात्रियों से मिलकर बेहद प्रफुल्लित होते हैं| उन्हें लगता है कि जैसे अपने आप को पूरे भारत के साथ जुड़े होने का एहसास कर रहे हैं|
बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं है| तवांग तीर्थ-यात्रियों के स्वागत- सम्मान में पूर्वोत्तर भारत के लोग अनेक सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी करते हैं|
पूर्वोत्तर के लोगों की आत्मीयता, अपनत्व, अतिथि सत्कार की भावना, सरलता, मधुरता एवं मिलनसारिता तवांग तीर्थ-यात्रियों को बरबस ही अपने तरफ आकर्षित कर लेती है|
पूर्वोत्त्तर भारत के लोग जिस तरह से अपनी लोक कला, लोक संस्कृति एवं लोक व्यवहार को न सिर्फ बचाए हुए हैं बल्कि उसे और अधिक मजबूत करते जा रहे हैं, उससे सम्पूर्ण भारत को अपनी जड़ों से जुड़े रहने की प्रेरणा भी मिलती है|
प्रकृति ने पूर्वोत्तर भारत पर खूब कृपा बरसाई है| यहाँ के प्राकृतिक दृश्य देखते ही बनते हैं| प्राकृतिक दृश्यों, झीलों एवं झरनों से भरपूर पूर्वोत्तर भारत की यात्रा पर जाने वाले तवांग तीर्थ -यात्रियों को ब्रह्मपुत्र नदी के टापू पर बना विश्व का एक मात्र शिव जी का मन्दिर, तेजपुर का महादेव मन्दिर, भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध जी का अग्निगढ़ मन्दिर, चित्रलेखा उद्यान, अरुणाचल का प्रवेश द्वार ‘भालूक पोंग’, पश्चिम कामेंग जिले का मुख्यालय ‘बोमडिला’, सैनिक जसवंत सिंह की स्मृति में बना जसवंतगढ़, भारत – चीन युद्ध में हुए शहीदों के शहीद स्मारक, छठे दलाई लामा जी की जन्मस्थली ‘तवांग मठ’, दलाई लामा जी के पद चिन्ह, गुरु नानक देव जी की तपस्या स्थली भूमि पर बना ‘नानक लामा’; शहीद जोगिन्दर बाबा का स्मारक सहित अन्य ऐतिहासिक स्थानों को देखने, जानने एवं समझने का मौका मिलता है|
यदि तवांग तीर्थ- यात्रा का निष्पक्ष रूप से विश्लेषण किया जाये तो बिना किसी लाग – लपेट के कहा जा सकता है कि इस यात्रा का उदेश्य बेहद पवित्र है|
इस यात्रा को नवम्बर मास में आयोजित करने का एक ख़ास मकसद यह भी है कि दुष्ट चीन ने 20 अक्टूबर 1962 को हिन्दी चीनी भाई भाई के नारे को दरकिनार करते हुये भारत पर आक्रमण कर दिया था।
इसी अरुणाचल प्रदेश में हमारे वीर सैनिकों ने अपर्याप्त संसाधनों के बावजूद चीनी सैनिको को मुहतोड़ जवाब दिया था l सैनिकों कि वीरता से घबराकर चीनी सैनिकों को पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा l
सन 1962 में ही 14 नवम्बर को भारतीय संसद के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में यह संकल्प लिया गया था कि चीन द्वारा हथयाई गई भूमि का एक-एक इंच वापस लिया जायेगा l ज़ब तक सारी भूमि वापस नहीं ले ली जायेगी तब तक चैन से नहीं बैठा जायेगा l
इस यात्रा के माध्यम से देश के हुक्मरानों को यह याद दिलाया जाता है कि 14 नवम्बर 1962 को भारतीय संसद में लिए गए संकल्प को पूरा करने का समय आ गया है l
इस संकल्प को पूरा करने के लिए सरकार आगे बड़े और देशवासियों को गौरवान्वित होने का अवसर प्रदान करे l
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि प्रत्येक भारतवासी को सूर्य की धरती के रूप में सुविख्यात अरुणाचल प्रदेश के बुमला बॉर्डर तक की यात्रा एक बार जरूर करनी चाहिए| इससे पूरे राष्ट्र को जानने एवं समझने का भरपूर अवसर मिलेगा l
(लेखक श्री पंकज गोयल 'भारत तिब्बत सहयोग मंच' के राष्ट्रीय महामंत्री हैं )