क्या यूपी की राजनीति में जातीय समीकरण के आधार पर चल रही है सत्ता की सीढ़ी चढ़ने वाली राजनीति

ओबीसी समाज को अपने पाले में लाने के लिए हर राजनीतिक दल वादे की चाशनी पिरोने लगा है। निकाय चुनाव में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने संबंधी योगी सरकार के निर्णय पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के फैसले से राजनीतिक दलों की इस मुहिम में तेजी आई है।
 
निकाय चुनाव 2023

ग्लोबल भारत न्यूज़ नेटवर्क

राजनीति, 05 जनवरी:- उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातीय समीकरण और उसके आधार पर सत्ता की सीढ़ी चढ़ने वाली राजनीति खूब चली है। राज्य में ओबीसी पॉलिटिक्स की शुरुआत वैसे तो 1960 के दशक में ही शुरू हो गई थी, लेकिन 1990 आते-आते यह उफान पर आ गया। खासकर मंडल आंदोलन के बाद, मंडल आंदोलन के बाद ही यूपी में ओबीसी वर्ग का उभार हुआ। इस वर्ग ने सत्ता के गलियारे में अपनी धमक और चमक बढ़ानी शुरू की, तो स्थापित समीकरण टूटने लगे, स्थितियां बदलने लगीं। राज्य में ओबीसी समाज हर दल की प्राथमिकता में आ गया और इसे ध्यान में रखकर ही सियासी समीकरण बनाए जाने लगे, अब राज्य में होने वाले निकाय चुनाव और आने वाले लोकसभा चुनावों को लेकर फिर से ओबीसी समाज को अपने पाले में लाने के लिए हर राजनीतिक दल वादे की चाशनी पिरोने लगा है। निकाय चुनाव में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने संबंधी योगी सरकार के निर्णय पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के फैसले से राजनीतिक दलों की इस मुहिम में तेजी आई है।

क्या है यूपी का राजनीतिक समीकरण- गौरतलब है कि यूपी में 762 शहरी निकाय हैं, इसमें 17 म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन, 200 नगर पालिका परिषद और 545 नगर पंचायत हैं। 762 शहरी निकाय की कुल आबादी करीब 5 करोड़ है, 17 म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन में से दो सीट अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित हैं, इसमें से एक सीट अनुसूचित जाति की महिला उम्मीदवार के लिए आरक्षित है। इन्ही सीटों को जीतने के लिए ही यूपी में ओबीसी समाज को साधने के लिए हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी सियासत करने में जुटा है। समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसे दलों में निकाय चुनाव में अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने संबंधी योगी सरकार के निर्णय पर हाईकोर्ट के फैसले से खुशी हैं, यह दोनों ही दल हाईकोर्ट के फैसले को आधार बनाकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को आरक्षण विरोधी साबित करने में जुटी हैं। बसपा मुखिया मायावती ने कहा है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही आरक्षण विरोधी पार्टियां हैं, दोनों ने मिलकर पहले एससी और एसटी वर्ग के उत्थान के लिए उनके आरक्षण के संवैधानिक अधिकार को लगभग निष्क्रिय और निष्प्रभावी बना दिया है और अब वही बुरा जातिवादी द्वेषपूर्ण रवैया ओबीसी वर्ग के आरक्षण के साथ ही हर जगह किया जा रहा है। सपा मुखिया अखिलेश यादव ने भी खुद को ओबीसी समाज का हितैषी बताते हुए कहा है कि भाजपा सामाजिक न्याय की दुश्मन है, इस पार्टी ने हमेशा ही पिछड़ों के साथ सौतेला व्यवहार किया है, उनका हक छीना है।

अखिलेश यादव ने भी खेला OBC कार्ड- अखिलेश ने दलितों को भी आगाह करते हुए कहा है कि अभी योगी सरकार ने सिर्फ पिछड़ों का आरक्षण छीना है, आगे वह दलितों का हक भी छीन लेगी और दोनों ही वर्गों की आने वाली पीढ़ियों को गुलाम बना लेगी। अखिलेश ने ऐलान किया कि सपा इसके खिलाफ संघर्ष करेगी, वास्तव में अखिलेश और मायावती अब भाजपा को आरक्षण विरोधी साबित करते हुए अपने उस वोट बैंक को दोबारा हासिल करने की कोशिशों में जुट गए हैं, जिन्हें 2014 के लोकसभा चुनाव में वो गवां चुके हैं। उधर भाजपा ने इस मसले पर आयोग गठित कर विपक्ष के किए कराए पर पानी फेर दिया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस वक्त उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोट बैंक हर राजनीतिक दल की प्राथमिकताओं में है, क्योंकि राज्य में 52 फीसदी वोट ओबीसी जातियों के हैं। इस वोट बैंक के पास यूपी की सत्ता की चाबी है। यही कारण है कि भाजपा, बसपा, सपा, कांग्रेस और अब सुभासपा तक की नजर इस वोट बैंक पर है। भाजपा ने ओबीसी वोटर्स को संतुष्ट रखने के लिए पहली और दूसरी सरकार में भी ओबीसी समुदाय से आने वाले केशव मौर्य को विधानसभा चुनाव हारने के बाद भी उप मुख्यमंत्री बनाया हुआ है। इसके अलावा भाजपा ने अपना दल (स) की अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी से चुनावी गठबंधन किया हुआ है। यही नहीं भाजपा ने पार्टी के अध्यक्ष पद पर भूपेंद्र चौधरी की तैनाती की है, जो ओबीसी समुदाय से आते हैं। ओबीसी समाज को साधने के लिए ही भाजपा ने यह सारी कवायद की हुई हैं।

यूपी में ओबीसी की राजनीति- जिन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के वादे क्षेत्रीय दलों ने किए थे, उनमें कहार, कश्यप, केवट, मल्लाह, निषाद, कुम्हार, प्रजापति, धीवर, बिन्द, भर, राजभर, धीमर, बाथम, तुरहा, गोड़िया, मांझी और मछुआरे शामिल हैं। इन 17 जातियों की प्रदेश में कुल आबादी 13 फीसद है, इन 17 जातियों को योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अनुसूचित जातियों में शामिल करने की सिफारिश की है। इनके अलावा बाकी की 13 जातियां निषाद समुदाय से आती हैं, इनमें निषाद, बिन्द, मल्लाह, केवट, कश्यप, भर, धीवर, बाथम, मछुआरा, कहार, धीमर, मांझी, और तुरहा जाति मिला कर 10 फीसद हैं। वही राज्य में 20.07 फीसद दलित आबादी है। जाटव, वाल्मीकि, धोबी, कोरी, पासी, चमार, धानुक समेत 66 उप जातियां हैं, इन्हें प्रदेश में 21 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है, जबकि अन्य पिछड़ी जातियों को प्रदेश में 27 फीसद आरक्षण मिल रहा है। यदि मुस्लिम ओबीसी को भी शामिल कर लिया जाए तो प्रदेश में ओबीसी की आबादी 52 फीसद है। इन जातियों को साधने की कोशिश में लगे अखिलेश यादव और मायावती निकाय चुनाव में भाजपा को आरक्षण विरोधी करार दे कर मतदाताओं की इस बिरादरी को जो कभी उनके साथ खड़ी थी, वापस हासिल करने की पुरजोर कोशिश में हैं। लेकिन वो ये भूल गए हैं कि 2014 में दोनों दलों का साथ छोड़ कर भाजपा के पाले में जा चुके अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं को वापस ला पाना इतना आसान अब नहीं है। भाजपा भी यह जानती है, इसलिए वह ओबीसी समाज को यह संदेश देने में जुटी है कि वही इनके हित में काम करते हुए उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ दिला रही है, जबकि सपा और बसपा ने सिर्फ उनका वोट लिया है, उनके हित में कभी कोई ठोस कार्य नहीं किया। निकाय चुनावों को लेकर भाजपा यह संदेश प्रदेश में दे रही है, उसे उम्मीद है कि यूपी का ओबीसी समाज निकाय चुनावों में भी उसका साथ देगा ठीक उसी तरह जैसे उसने बीते दो लोकसभा और दो विधानसभा चुनावों में दिया है।