क्या ओबीसी वोट को साधने के लिए रामचरित मानस पर उठाए गए सवाल पर लग गई सपा की लंका

नेता को अपनी छवि बनाने के लिए वर्षों परिश्रम करना पड़ता है, पर उसकी एक भी चूक उसके लिए भारी पड़ जाती है। इससे पता चलता है, कि अखिलेश यादव अपने आसपास जिन लोगों को रखते हैं, उनकी समाज की नब्ज पर पकड़ नहीं है या वे अपने नेता को ग़लत राय देते हैं।
 
रामचरित मानस

ग्लोबल भारत न्यूज़ नेटवर्क

राजनीति, 14 मई:- वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को बुरी तरह घेर लेने वाली सपा मात्र एक वर्ष में ही ऐसी गत को प्राप्त होगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं होगा। नगर निकाय चुनावों में तो सपा हारी ही, विधानसभा की भी अपने क़ब्ज़े वाली सीट खो दी। आज़म खान के बेटे मोहम्मद आज़म के अयोग्य साबित हो जाने से रामपुर की स्वार विधानसभा सीट पर उप चुनाव हुआ, वह सपा खो बैठी। वहां से बीजेपी की सहयोगी पार्टी अपना दल के शफ़ीक़ अहमद अंसारी जीत गए, सपा से अनुराधा चौहान लड़ रही थीं। जबकि यह सीट मुस्लिम बहुल है, इसी तरह मिर्ज़ापुर की छानबे विधानसभा सीट से अपना दल की रिंकी कोल जीत गईं। पर सबसे अप्रत्याशित नतीजे तो नगर निकाय चुनाव से आए, प्रदेश के 17 नगर निगमों में से एक भी सीट पर सपा नहीं जीती।

नगर निगम- 17/17
भाजपा- 17
बसपा- 0
कांग्रेस- 0
सपा- 0
अन्य- 0

नगर पंचायत- 544/544
भाजपा- 196
बसपा- 38
कांग्रेस- 14
सपा- 91
अन्य- 205

नगर पालिका- 199/199
भाजपा- 94
बसपा- 16
कांग्रेस- 04
सपा- 39
अन्य- 46

भाजपा के सभी मेयर की जीत हुई- ऐसा पहले कभी नहीं हुआ, कि नगर निगम में सारे मेयर बीजेपी के बने हों। तब यह सवाल उठता ही है, कि एक वर्ष में ही अखिलेश यादव ने अपनी चमक कहां खो दी, कैसे उनका अपना कोर वोट बैंक खिसक कर बीजेपी के साथ चला गया। उत्तर प्रदेश में कुल 17 नगर निगम, 199 नगर पालिकाएं और 544 नगर पंचायतें हैं। नगर पालिकाओं और नगर पंचायतों में भी सपा को कोई उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। आगरा में तो वह बसपा से भी वह पीछे रही। जबकि पिछले वर्ष हुए विधानसभा चुनावों में सपा ने सत्तारूढ़ बीजेपी को अच्छी ख़ासी टक्कर दी थी। मात्र 14 महीनों में पार्टी का इस तरह रसातल में जाना यह बताता है, कि सपा अध्यक्ष की रणनीति में कोई भारी चूक हुई है।

क्या रामचरित मानस पर उठाए गए सवाल ने लगा दी सपा की लंका- इस चूक को समझने की कोशिश यदि नहीं की गई तो आने वाले दिन समाजवादी पार्टी को भारी पड़ जाएंगे। एक बार को यह मान भी लिया जाए, कि नगर निगम में तो शहरी मतदाता वोट डालता है और वह आजकल बीजेपी की तरफ़ को झुका हुआ है। तब यह भी प्रश्न उठता है, कि नगर पालिकाओं में सपा क्यों पिछड़ी और नगर पंचायतों में क्यों? नगर पंचायतें तो एक बड़े गांव के स्वरूप में होती हैं। समाजवादी पार्टी के लिए इन प्रश्नों पर विचार ज़रूरी है। पिछले वर्ष के विधानसभा चुनाव के बाद से सपा ने अपने को विस्तृत करने की बजाय ख़ुद सुरक्षात्मक हो गई। मुस्लिम, दलित प्रश्नों से उसने किनारा कर लिया, नतीजा कि जो समाजवादी पार्टी गांवों की, पिछड़ों की, ग़ैर जाटव दलितों की हुआ करती थी वह एक जाति तक सिमटती चली गई। किसी भी मुद्दे पर सड़क पर उतरने की उसने सोची ही नहीं। बस एक ट्वीट कर छुट्टी पा ली।

मुलायम सिंह यादव ने सपा को धरती पुत्रो की पार्टी कहा था- दिवंगत मुलायम सिंह यादव ने सपा को धरती-पुत्रों की पार्टी कहा था। किंतु पिछले तीन दशकों में कुछ धरती पुत्र क्रीमी लेयर में आ गए, लेकिन सुविधाओं को अपने परिवार तक सीमित करने के लिए उन्होंने इसमें अन्य पिछड़ों को घुसने ही नहीं दिया। समाजवादी रणनीतिकार भूल गए, कि धरतीपुत्र अब क्रीमी लेयर में आ गए हैं और उनका दायरा अब पार्टी से बाहर भी सोचने लगा है। इसलिए यदि नीतियां नहीं बदलीं तो पार्टी सिमटने लगेगी। तुलसी का समय भिन्न था और तब समाज में ऐसी जातिवादी मान्यताएं स्वीकृत थीं, और यह चौपाई वह शख़्स बोल रहा है, जो खल पात्र है। किंतु इन सब चीजों पर गौर किए गए एक पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष इस तरह की बातें करेगा तो उसका आधार खिसकेगा ही। इन लाइनों पर प्रतिबंध की माँग करने से एक लोक कवि का तो अपमान है ही उन करोड़ों लोगों की आस्था व श्रद्धा का भी अपमान है, जो राम के प्रति भक्ति-भाव रखते हैं।

समय रहते अखिलेश यादव ने नही ली सीख- उस समय कई लोगों ने अखिलेश यादव को चेताया भी था लेकिन इसके ज़रिए ओबीसी वोट को साध लेने के विचार के चलते उन्होंने चेतावनी अनदेखी कर दी। नेता को अपनी छवि बनाने के लिए वर्षों परिश्रम करना पड़ता है, पर उसकी एक भी चूक उसके लिए भारी पड़ जाती है। इससे पता चलता है, कि अखिलेश यादव अपने आसपास जिन लोगों को रखते हैं, उनकी समाज की नब्ज पर पकड़ नहीं है या वे अपने नेता को ग़लत राय देते हैं।